The Journey of Losing:- प्रारंभ
The Journey of Losing
Why would a human being choose to alienate itself, not from the society or the people or kiths and kind, but from its own self, its own character, the only differential thing of its whole existence? This self-deprivation leads to its weakening and eradication of its vision. The vision was once the sole axis of its whole working and functionality.
What makes a human being begin the 'Journey of Losing.'
If you fancy the blame game there will be a lot to go around, and most of which will come around to you, almost all actually. There were obvious circumstances that made you either choose or focus. Then other human beings made you do things or take the path which you do not wish to walk, then nature and destiny, etc and the list goes on. But if you look closely this down the hill journey began when you could neither continue on the path bestowed upon you nor have the courage to turn back and restart on the road of your choice.
So this dilemma and its aftermaths are reasons for what I think leads a human being to this 'Journey of Losing.'
To be continued...
Do share your thoughts!
मनुष्य मूलतः एक समाजिक जीव है।इसका जन्म ही समाजिक तौर तरीकों के साथ जीवन व्यापन हेतु होता है।इस समाजिक व्यवस्था में रहते हुए भी मनुष्य कभी कभी अलग हो जाता है,समाज से नहीं, और नहीं अपने स्वजनों से अपितु स्वयं से।समाज से अलग हो के भी लोग एकांतवास में रहते है किन्तु वे भी अपने आप से अलग नहीं हुए होते। समाज से अलग होना और स्वयं से अलग होना दो भिन्न बातें हैं।
मनुष्य जब स्वयं से अलग होता है,तब सर्वप्रथम अपने मूल चरित्र को खो देता है, उसके बाद धीरे धीरे वह अपनी लगभग सभी कुशलताएं भी खो देता है। जिसके कारण उसकी दूरदर्शिता और आत्म शक्ति का ह्रास होने लगता है,ये वही खूबियां हैं जिनके बल पर वह एक पृथक ईकाई के रूप में देखा जाता रहा है। यह स्व ह्रास उसकी समस्त क्षमताओं को जकड़ कर उन्हें अकर्मक बना देता है,और प्रायः यही उसके क्षरण का मार्ग प्रशस्त कर देता है।
और फिर प्रारंभ होती है उसके "हार की यात्रा"।
यदि दोषारोपण का खेल खेला जाए तो बहुत से लोगों पर दोष जाएगा,किन्तु सभी के मूल लौटकर उसी मनुष्य को इंगित करेंगे।
फिर चाहे वह माता - पिता हों, समय या परिस्थिति की मांग ,भाग्य या समाज।ये सभी अवश्य ही अत्यंत प्रभावी कारक हैं,किन्तु इनमें से कोई भी सर्वदा अटल रहने वाला नहीं है। ये सभी कारक मनुष्य को उसके विचारों और स्वभाव के विपरित एक पूर्व प्रशस्त मार्ग पर चलने हेतु बाध्य करते हैं।
मनुष्य बेमन से ही उस मार्ग पर आगे बढ़ना तो शुरु करता है, किन्तु कुछ दूर जाने पर उसे यह ज्ञात हो जाता है कि वह आगे नहीं बढ़ सकता, और ना ही अब वापस आकर दूसरा रास्ता चुन सकता है।ऐसे में वह वहीं निराश और हताश होकर बैठ जाता है और स्वयं को भाग्य के भरोसे छोड़ देता है।राम चरित मानस में ऐसे ही स्थिति के लोगों के लिए गोस्वामी जी ने लिखा है "कादर मन कछु एक अधारा, दैव दैव आलसी पुकारा।।" किन्तु यहां पर एक चर राशि है, और वह है चुनाव की। यह मार्ग प्रशस्त उसने नहीं किया,किन्तु उस मार्ग पर चलने के सभी परिणाम उसी के हैं,और अन्य कोई भी उसका वैसे भोगी नहीं हो सकता,जैसा कि वह खुद है।
वह मनुष्य एक निष्क्रिय जीवन की कामना बिलकुल नहीं करता,और इन सभी कारकों और घटकों के प्रभाव के कारण वह अब दुविधा कि स्थिति में है, और इन्हीं कारकों घटकों और दुविधाओं के कारण उसके जीवन में " हार की यात्रा" शुरु होती है।
The Journey of Losing ofcourse begins at the very start of the journey towards the END . Like a River flowing into the sea - I can very well relate with your dilemmas - wish to read more on this very soon ... And Congrats on your Own Blog bhaisahab ....
ReplyDeleteThank you very much...I will soon be here with next part.
DeleteReally very nice words
ReplyDeleteWaiting for next part to come soon..
Appreciable work 👍
Thank you for your time.
DeleteNext part is already posted.
Do check out again it's going to be a long conversation.
Nicely penned.
ReplyDeleteCongratulations and all the very best to you! Looking forward to get similar good reads.
Thank You very much.
DeleteI will definitely try to get better.
Superb 👍👍👍
ReplyDeleteThank you!!!
DeleteWelldone my frnd lge raho badhiya hh m inspired with uhhh really nice
ReplyDeleteThank you ...
Delete