How it all Ends...

One has made it so far, walking through the fields where all his capabilities are left to die all his visions of life are wounded and everything is carnage. Self-realization induces self-deprivation and hatred and one sees the debt it has taken mortgaging the future. one can not think of anything but to destroy whatever is left. But destruction never brings peace it brings silence, an ominous silence. 


Now, how the Journey would end, It's up to one's desire to fight back or stay down. What happens is totally one's choice, one can choose to stay downtrodden or get up and walk. Decisions are tough and they have their consequences, but one has to decide, at this point, there is no ambiguity.


Either one's decision is to stay down and live on knees, or to rise up limping then walk then run and collect the pieces and from where ever you can preserve, persevere and  Just BEGIN AGAIN.....!!!!!


                           हिन्दी रूपांतरण

                 हार की यात्रा - आखिरी अध्याय

मनुष्य एक बड़ा ही विचित्र जीव है,इसने सब कुछ स्वयं अर्जित किया और फिर गंवा भी स्वयं दिया।मेहनत करके उसने रहने के लिए घर और बाड़े बनाए और अपने चौकन्ना रहने की क्षमता और फुर्ती को गंवा दिया।ऐसे बड़े सारे उदाहरण हैं,जो आपने कहीं ना कहीं पढ़े या सुने होंगे।

ये इस विषय का आखिरी हिस्सा है, यहां पहुंचने तक आपने जान लिया कि ये "हार की यात्रा" कब शुरू होती है, कैसे शुरू होती है, और कैसे ये बढ़ती है अपने गंतव्य की ओर। मनुष्य ने धीरे धीरे करके अपने अंदर कि हर कला हर कार्य निपुर्णता और हर क्षमता का क्षरण किया। और फिर जब वह अपने दुर्व्यसन से बाहर निकला और सिर उठाकर देखा, तो वह आत्म ग्लानि और आत्म घृणा के अंतहीन भंवर में फंस कर स्व - विनाश का कारक बना। अंततः उसे ये ज्ञात होता है कि ये "केवल आज में जीने की दवा" का नशा इतना बढ़ गया था कि उसे पता भी नहीं चला कि कब उसने इस नशे को खरीदने के लिए भविष्य को गिरवी रख दिया,और वह भी चक्रवृद्धि ब्याज पर।


इन सभी दुर्घटनाओं के बाद जब वह उस रास्ते से आगे भविष्य कि ओर बढ़ता है तब उसे उसके किए का दृश्य प्राप्त होता है,कहीं कोई कला अपना दम तोड़ रही होती है, कहीं उसकी क्षमता जमींदोज पड़ी होती है।यह दृश्य भयावह होता है,और उसकी आत्मा की चीत्कार उसके तन और मन दोनों को झकझोर के रख देती है।वह कुछ भी समझ नहीं पाता, वह सोचने समझने की क्षमता खो चुका होता है और अपने बचे हुए आत्मबोध को भी नष्ट करके शांति प्राप्त करना चाहता है।किन्तु विध्वंस कभी शांति नहीं लाता, विध्वंस से सिर्फ सन्नटो की उत्पत्ति होती है।


अब सवाल यह है कि इस "यात्रा" का अंत क्या है? और यह कठिन भी है। ये इस मनुष्य और उसकी बची हुई इच्छाशक्ति पे निर्भर करता है,ये इस बात पर आश्रित है कि उसने आत्मसम्मान कितना बचा है।

क्या उसे ये मंज़ूर है कि वो अपना सारा जीवन यूहीं अपने भूतकाल में उलझा हुआ खुद को कोसता हुआ व्यतीत करेगा,या फिर अपनी बची हुई सारी ऊर्जा केंद्रित कर, एक सफल जीवन के निर्माण में लगाएगा।

क्या आजीवन उसे पराश्रित रह कर दबा कुचला और हीन जीवन व्यतीत करेगा जो कि किसी भी प्रकार के सुख से वंचित है क्योंकि "पराधीन सुख सपनेहुं नाही",यह तो सर्वविदित है।


निर्णय कठिन है और उससे भी कठिन निर्णय का क्रियान्वयन है,किन्तु करना तो पड़ेगा,ये वह आखिरी मौका है जहां इस बात का निर्णय होगा कि क्या वह घुटनों पे जिएगा या फिर लड़खता हुआ खड़ा होगा ,लंगड़ा ही सही पर चलेगा, फिर दर्द में ही सही पर दौड़ेगा, और जीवन के पुनर्निर्माण के लिए "पुनः आरंभ करेगा".....।


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Comments

  1. हिन्दी में कम ही ब्लौग पढ़ने को मिलते हैं - बहुत ही संजीदा ढंग है लेखन का । पुनीत बाबू - ऐसे ही लिखते रहिए .... आगे बढ़ते रहिए .....

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  2. आत्म चिंतन को आमंत्रित करता आपका लेख ।

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  3. मेरे पास शब्द नही है,, आपकी तारीफ के लिये पुनीत 💙।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद!!!

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