शिक्षक दिवस पर प्रकृति विशेष

आज शिक्षक दिवस और अंतररष्ट्रीय दान दिवस है,क्या संयोग है कि यह दोनों एक ही दिन हैं।शिक्षा का दान देकर हमें जीवन जीने के विभिन्न तरीकों से अवगत कराने वाले ही होते हैं शिक्षक,कम से कम परिभाषा तो ये ठीक है।वैसे इस पूरे साल की सबसे बड़ी शिक्षक रही है ये महामारी और एक समुदाय के तौर पर मनुष्य की इस पर प्रतिक्रियाएं।

सर्वप्रथम और जो सर्वज्ञ बात इसने ये सिखाई कि मनुष्य की प्रकृति के आगे कोई बिसात नहीं है,यह सभी प्रकृति प्रदत्त संसाधन एक दान है,फिर भी मनुष्य ने स्वयं को सर्वशक्तिमान मानते हुए, इसके प्रेम और उदारता को कमजोरी समझ के सिर्फ इसका दोहन ही किया है और इसके परिणाम स्वरूप ये महामारी दे कर प्रकृति ने स्वयं को  स्वस्थ करने के साथ ये भी याद दिला दिया कि हम मनुष्यों की क्या औकात है। ये बात हमें भूलनी नहीं चाहिए कि हम सभी प्रकृति की तुलना में क्षण भंगुर हैं,और इसने हमें जीवन यापन हेतु आश्रय एवं उपयुक्त संसाधन दिए हैं। प्रकृति में यदि सांस लेने की हवा दी है तो उसके पास उस दूषित करके विषाक्त काल वायु बना देने की क्षमता भी है। उदाहरण अनेक हैं,कितने लिखे और बताए जा सकते हैं,मुख्य बात इस अंतर को समझने की है और अमल में लाने की है,प्रकृति को उसका उचित सम्मान देने की है,और जो अब भी नहीं संभले तो दिनकर जी की रश्मिरथी की ये पंक्तियां याद कर लें -
" जब नाश मनुज पे छाता है,पहले विवेक मर जाता है"। बाकी मानव जाति बहुत समझदार है।

विभिन्न देशों ने इस महामारी के प्रति अलग अलग स्तरों पर प्रतिक्रिया दी। जिस देश ने शुरुआती दौर में लापरवाही की,उसने अपने देश में होने वाली मृत्युओं की संख्या बढ़ा ली,फिर सजग हुए, संभले और धीरे धीरे अपनी गलतियों को सुधार लिया। जो देश शुरुआत से ही इसके प्रति कठोर कदम उठा पाए उनमें ये बीमारी उतना भयावह रूप नहीं ले पाई,किन्तु उन्हें इसकी कीमत अपनी आर्थिक व्यवस्था की आहुति दे कर चुकानी पड़ी। अर्थात ये महामारी ऐसी रही की जहां फैली वहां लोग रोग से मरे जहां प्रचंड रूप नहीं के पाई वहां लोग भूख से मरे। ये बस एक छोटी सी थपकी थी,हमें यह याद दिलाने के लिए कि हमसे उपर भी एक शक्ति है,और सम्पूर्ण मानव सभ्यता का होना या ना होना उसके संकल्प मात्र पर निर्भर करता है,और इस शक्ति का ही भौतिक रूप प्रकृति है।

अब इस कोरोना महामारी के दौरान मानव जाति की प्रतिक्रिया पर दृष्टि डालते हैं,खैर इसमें बताने जैसा कुछ है नहीं और इतनी हीन स्तर की प्रतिक्रिया के विषय में कोई क्या लिखे। हर तरफ बस लोग दो गुटों में बंटे हुए हैं, और राजनैतिक लाभ हेतु इन लोगों को लड़वाया जा रहा है,हानि सिर्फ लड़ने वालों को हो रही है, और लाभ सिर्फ इन गुटों को लड़वाने वालों को हो रहा है जो ये सब अपने सुरक्षित कमरों से बैठ ये सब किसी तमाशे की तरह देख रहे हैं। अब मैं अपने देश की क्या बात करूं,यहां तो डॉक्टरों, नर्सों और अन्य चिकित्सा विभाग और सुरक्षा विभाग के कर्मचारियों को ही मारा और लहूलुहान किया गया,फिर इतने से मन नहीं भरा तो महिला कर्मचारियों के साथ  अस्पतालों में अभद्र व्यवहार किया गया, एक तो वैसे ही सुरक्षा  संयंत्रों की कमी झेल रहे ये सभी पूरे पूरे दिन उपचार और अन्य कामों में लगे हुए थे, उपर से ये सब भी झेल रहे थे।  इसके बारे में अलग अलग समुदायों की, अलग अलग न्यूज चैनलों की,अलग अलग बुद्धिजीवियों की अपनी अपनी राय है।उसी प्रकार कुछ देश ऐसे भी हैं जिन्हें ये दौर एक अवसर की तरह दिखा और उन्होने इसका लाभ उठाने के लिए अन्य सभी को इसकी बलि चढ़ा दिया जैसे की चीन,वहीं कुछ देश ऐसे भी थे जिन्होंने इस कठिन समय में अपने से बड़े और शक्तिशाली देशों को मदद दे कर,मानवता का परिचय दिया जैसे की ताइवान। अपना अपना व्यक्तित्व, समझ और अपनी अपनी राय है।

अंततः इस महामारी ने हमें यह सिखा दिया कि मनुष्य जाति प्रकृति की  सहिष्णुता की सीमा रेखा पार कर रही है और इसके परिणाम कैसे होंगे,इसके साथ ही विभिन्न देशों, समुदायों और लोगों के गूढ़  चारित्रिक गुणों से भी अवगत करवा दिया। अब यह हम पर निर्भर करता है कि प्रकृति द्वारा दी गई इस शिक्षा का हम मनन, चिंतन और प्रयोग कर कितना लाभ उठा पाते हैं,और अपने उत्थान के मार्ग में क्या परिवर्तन करते हैं। वैसे हम चाहें तो ये सब भुला कर अपने पूर्ववर्ती रास्ते पर भी चल सकते हैं,हम मनुष्य हैं , सर्वशक्तिमान होने का भ्रम पालना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है,और कोई भी शिक्षा या शिक्षक हमारा ये भ्रम कुछ समय के लिए ही हटा सकता है,क्योंकि हम शिष्य नहीं बनना चाहते।

मेरा सादर धन्यवाद जीवन के उन सभी क्षणों, लोगों, घटनाओं को जिन्होंने मुझे शिष्य बनने की शिक्षा दी।

लेखन:-
पुनीत तिवारी

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Comments

  1. व्यवहारिक मार्गदर्शन करता आपका लेख।

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    1. बिल्कुल सटीक टिप्पड़ी 👌👌

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